Tuesday, June 23, 2009
अनभै सांचा के अंक २ में प्रकाशित
चप्पा-चप्पा इस ज़मीं को दल रहीं थीं आंधियां।
कौन जाने किस दिशा से चल रही थीं आंधियां।
हमको तो ऐसा लगा सदियाँ हमारी खो गयीं
लोग कहते हैं की पल दो पल रहीं थीं आंधियां।
तुम ये समझे बस तुम्ही थे ग़र्दिश-ए-तूफ़ान में
हमको भी कुछ इस तरह ही दल रहीं थीं आंधियां।
बात इतनी थी मगर क्यूँ आ गया तूफ़ान सा
कौन जाने कब से दिल में पल रहीं थीं आंधियां।
अब के बारिश में सुना है वो शजर भी गिर गए
जिनके पत्तों के सहारे चल रहीं थीं आंधियां।
अक्स अपना देख कर वो डर गया घबरा गया
आईने हाथों में लेकर चल रहीं थीं आंधियां।
अब नहीं मिल पाएंगे उस रेत पर मेरे निशाँ
मैं चला था जब वहाँ से चल रहीं थीं आंधियां।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
हर शेर दाद के काबिल
ReplyDeleteबहुत सुन्दर शेर
खूबसूरत, गजल
(अनभै सांचा के लिए मैंने मेल की थी मगर कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली )
वीनस केसरी
dhanyavaad. maine aapke comment ke upar hi ek vistrrat comment diya hai parh lein. phir bhi aapko ek mail kar detaa hun.
ReplyDeletejagmohan
आईने हाथों में लेकर चल रहीं थीं आंधियां।
ReplyDeletebahut khoobsurat!
वाह बहुत ख़ूब
ReplyDelete---
डायनासोर भी तोते की जैसे अखरोट खाते थे
बेहतरीन रचना. बहुत पसंद आया.
ReplyDelete- सुलभ (यादों का इंद्रजाल)