Sunday, March 20, 2011

क़तरा क़तरा वो रात ढलती रही.
ज़िन्दगी हाथ से निकलती रही.

मैं खड़ा रह गया  किनारे पर
वो अकेली लहर से लड़ती रही.

मेरे घर को न कर सकी रोशन
आसमान से ज़िया उतरती रही.

कुछ हुआ यूँ कि उम्र भर मंज़िल
दो  क़दम दूर  हमसे चलती  रही.

हम तो अपनी ही राह पर थे मगर
रोशनी   ज़विए   बदलती   रही.

कश्तियाँ धंस गयी किनारों पर
एक कागज़ कि नाव चलती रही.

सबने देखा कि कायनात-ए-सजल
बस यूँ ही टूटती बिखरती रही.


ज़िया -  रोशनी
ज़विए - कोण
कायनात-ए-सजल - सजल की दुनिया


4 comments:

  1. कश्तियाँ धंस गयी किनारों पर
    एक कागज़ कि नाव चलती रही.

    सबने देखा कि कायनात-ए-सजल
    बस यूँ ही टूटती बिखरती रही.
    aapka bhi blog bahut achchha hai ,itni khoobsurat rachna jo hai yahan .holi parv ki badhai aapko .

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  2. कश्तियाँ धंस गयी किनारों पर
    एक कागज़ कि नाव चलती रही.

    सुभानाल्लाह ......!!

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  3. कुछ हुआ यूँ कि उम्र भर मंज़िल
    दो क़दम दूर हमसे चलती रही.

    हम तो अपनी ही राह पर थे मगर
    रोशनी ज़विए बदलती रही.

    khoobsoorat shaairee,waah!

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  4. ब्लॉग पर आने के लिए आप सबका बहुत धन्यवाद.
    जगमोहन राय

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