Saturday, November 3, 2012

दर्द की दास्ताँ सुनाने में।
देर कर दी क़रीब आने में।

हादसा था पलक झपकने का
मुद्दतें लग गईं भुलाने में।

उसका कुछ दर्द कम हुआ शायद
क्या गया मेरा मुस्कुराने में।

यूं न हैरान हो की ज़िंदा हूँ
वक़्त लगता है जान जाने में।

एक तस्वीर के सहारे भला
कौन जीता है इस ज़माने में।

कश्तियों की तमाम उम्र गयी
ज़ोर लहरों का आज़माने  में।

रास आयी न जब चमन की फ़ज़ा
लौट आया वो क़ैदखाने में।

जाने किस-किस ने साज़िशें देखीं
एक मस्ती भरे तराने में।

आंधियों में बिखर न जाएँ शजर
इन हवाओं से सुर मिलाने में।

अब 'सजल' ढूंढ के रहेगा सहर
इस सियाह रात के फ़साने में।



Saturday, June 16, 2012

My ghazal published in Anbhaya saancha years back

सोती आँखें.
रोती आँखें.

कितने ख्वाब
संजोती आँखें.

सीप में जैसे
मोती आँखें.

काश सभी की
होती आँखें.

कितने मंज़र
ढोती आँखें.

प्यार के सपने
बोती आँखें.

'सजल' शराफ़त
खोती  आँखें.