Wednesday, October 26, 2011

डूब जाने का तो डर होता है.
फिर भी हर रोज़ सफ़र होता है.

वो किनारों पे ही रह जाते हैं
जिनको तूफ़ान का डर होता है. 

बहते धारों के रुख बदल देना 
ये कहाँ सब में हुनर होता है.

सबमें तूफ़ान अपने अपने हैं
सबके अन्दर ही भंवर होता है.

लूटने वालों को मिलते हैं समर
चोट खाने को शजर होता है.

ऐ मेरी जाँ मैं वही हूँ  लेकिन
उम्र का कुछ तो असर होता है.

सूखे पेड़ों पे बहारों का असर
कम ही होता है, मगर होता है.

जब मैं इस और चला आता हूँ
तब कोई और उधर होता है.

जब नहीं होता अपने साथ 'सजल'
किसको मालूम किधर होता है.

समर=फल
शजर=पेड़



Monday, March 28, 2011

आते आते यार समंदर.
लौट गया हर बार समंदर.

मैं सहरा हूँ मुझ में भी है
रेत का पानीदार समंदर.

तू क्या जाने क्या होती है
पानी की बौछार समंदर.

काश मुझे भी हासिल होतीं
बूंदें ये दो चार समंदर.

एक तलैया मेरे अन्दर
ढूँढ रही विस्तार समंदर.

एक लहर मुझको भी दे दे
मैं भी उतरूँ पार समंदर.

सारी दुनिया देख रही है
लहरों की तक़रार समंदर.

जीवन लेना जीवन देना
ये कैसा व्यापार समंदर.

पानीदार = चमकता हुआ


Sunday, March 20, 2011

फूल दिखला के मेरे ज़ख्म खिलाने वाले.
लौट के आ ऐ मुझे छोड़ के जाने वाले.

मुझ को दे देंगे सज़ा मौत की सौ बार, अगर
मेरी नज़रों से मुझे देखें ज़माने वाले.

मैं तो क़ैदी हूँ मुझे यूँ ही पड़ा रहने दे
बाँध के पंख मेरे मुझको उड़ाने वाले.

उनको मालूम नहीं कौन यहाँ रहता था
किसका घर फूँक के आये हैं जलाने वाले.

उसने पूछा जो कभी रोक न पाए खुद को
राज़ सब कह दिए जो जो थे छुपाने वाले.

हम तो ये सोच के बस उनका कहा मान गए
रूठ न  जाएँ कहीं हमको मनाने वाले.

ये सदा अर्श के पर्दों को हिला सकती है
मेरी आवाज़ में आवाज़ मिलाने वाले.

घर में यादों के 'सजल' दीप जला रखे हैं
देखे किस तरह भुलाते हैं भुलाने वाले.

क़तरा क़तरा वो रात ढलती रही.
ज़िन्दगी हाथ से निकलती रही.

मैं खड़ा रह गया  किनारे पर
वो अकेली लहर से लड़ती रही.

मेरे घर को न कर सकी रोशन
आसमान से ज़िया उतरती रही.

कुछ हुआ यूँ कि उम्र भर मंज़िल
दो  क़दम दूर  हमसे चलती  रही.

हम तो अपनी ही राह पर थे मगर
रोशनी   ज़विए   बदलती   रही.

कश्तियाँ धंस गयी किनारों पर
एक कागज़ कि नाव चलती रही.

सबने देखा कि कायनात-ए-सजल
बस यूँ ही टूटती बिखरती रही.


ज़िया -  रोशनी
ज़विए - कोण
कायनात-ए-सजल - सजल की दुनिया