Saturday, June 6, 2009

अनभै सांचा के अंक २ में प्रकाशित

चप्पा-चप्पा इस ज़मीं को दल रहीं थीं आंधियां।
कौन जाने किस दिशा से चल रही थीं आंधियां।

हमको तो ऐसा लगा सदियाँ हमारी खो गयीं
लोग कहते हैं की पल दो पल रहीं थीं आंधियां।

तुम ये समझे बस तुम्ही थे ग़र्दिश-ए-तूफ़ान में
हमको भी कुछ इस तरह ही दल रहीं थीं आंधियां।

बात इतनी थी मगर क्यूँ आ गया तूफ़ान सा

कौन जाने कब से दिल में पल रहीं थीं आंधियां।

अब के बारिश में सुना है वो शजर भी गिर गए
जिनके पत्तों के सहारे चल रहीं थीं आंधियां।

अक्स अपना देख कर वो डर गया घबरा गया
आईने हाथों में लेकर चल रहीं थीं आंधियां।

अब नहीं मिल पाएंगे उस रेत पर मेरे निशान
मैं चला था जब वहाँ से चल रहीं थीं आंधियां।

2 comments:

  1. shayar sajal ki ghazal ko padkar unke andar chupe zamaane ke dard ka ehsaas hua. lagtaa hai ki aane wale samay mein sajal ghazal ka pryayvachi ho jayega. Sajal ji give us more ghazals to read.
    shiv kumar sahdev 'udaas'

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  2. Too good... Tarun Arora

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