Saturday, June 13, 2009

अनभै सांचा में प्रकाशित

रह रह के लहू रिश्ता रहा आसमान से।

ये कैसा तीर चल गया मेरी कमान से।

रखने को अपने पाँव ज़मीं ढूंढता रहा

जब थक गया वो अर्श की ऊंची उड़ान से।

टूटा था एक पंख मगर उड़ रहा था वो

लड़ता रहा वो लड़ सका जब तक विधान से।

कितने जतन से हमने मिटाए थे फासले

फ़िर गार कितने बन गए उनके ब्यान से।

बादल से झांकती हुई किरणों ने ये कहा

अब तो 'सजल' हटाईये परदे मकान से।

3 comments:

  1. बादल से झांकती हुई किरणों ने ये कहा
    अब तो 'सजल' हटाईये परदे मकान से।

    सभी शेर पसंद आये
    खूबसूरत गजल

    वीनस केसरी

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  2. उत्तम लिखा जगमोहन जी।

    रखने को अपने पाँव ज़मीं ढूंढता रहा
    जब थक गया वो अर्श की ऊंची उड़ान से।


    पंक्तियां दिल को छू गई।

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  3. aap logon ko ghazalein pasand aayeen. zahe-naseeb. asal mein aapki likhi hui ek pankti kahin kisi ko chhoo jaye yeh kaafi hota hai likhte rahne ke liye. saahitya srijan ka ek bada maksad yeh bhi hai ki samaaj me savendna bachhi rahe.

    dr. jagmohan rai

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