Saturday, January 9, 2010

जितनी पानी में उतरती जाए।

तशनगी सीप की बढ़ती जाए।

कैसी बारिश है ये कैसा पानी।

आग सीने में दहकती जाए।

धूप सूरज से किनारा कर ले

चाँदनी चाँद से डरती जाए।

आईना मुझसे पशेमान न हो

मेरी सूरत ही बदलती जाए।

आसमाँ भी नहीं सर पे मेरे

और धरती भी सरकती जाये।

कश्तियाँ ढेर हैं किनारों पर

मौज दरिया में उछलती जाए।

है 'सजल' उसके लम्स की खुशबू

या हवा यूँ ही महकती जाये।