Thursday, July 23, 2009

अनभै सांचा के अंक १४ में प्रकाशित

दिल में उठते हैं शरारे और भी।

इन हवाओं के सहारे और भी।

हैं कई तूफ़ान सागर में अभी

और सागर के किनारे और भी।

मौसमों के राज़ खुलने दे ज़रा

कर रही है रुत इशारे और भी।

पत्थरों से मैं ही क्यूँ टकरा गया

थे नदी में बहते धारे और भी।

जो कड़कती और थोडी बिजलियाँ

पास आते हम तुम्हारे और भी।

क्या हुआ जो चाँद फिर निकला नहीं

आसमाँ में हैं सितारे और भी।

इक अकेले तुम नहीं डूबे 'सजल'

कोई रह रह के पुकारे और भी।

अनभै सांचा के अंक १४ में प्रकाशित

देख लहरों में से निकला हुआ सर देख ज़रा।

पानी पानी हुआ ख्वाबों का वो घर देख ज़रा।



मैं तेरे ज़ोर-ओ-सितम करने की हद देखूंगा

तू मेरे जुल्मों को सहने का हुनर देख ज़रा।



मैं कहीं हूँ तू कहीं लख्त-ए-  जिगर और कहीं
सूखे पत्तों पे हवाओं का असर देख ज़रा।



यूँ तो मंज़र हैं ज़माने में ज़माने भर के

देखता हूँ मैं जिधर तू भी उधर देख ज़रा।



पार जाते वो सफीने तो सभी ने देखे

मेरी इस डूबती कश्ती का सफर देख ज़रा।