Sunday, June 28, 2009

अनभै सांचा में प्रकाशित

क्या तेरे दिल में है बता साहिल।
रेत के ज़र्रे न उड़ा साहिल।

तेरे आगोश में समंदर है
और अब चाहता है क्या साहिल।

जाती लहरों को अलविदा कह दे
आती लहरों में डूब जा साहिल।

मुझ में भी कारवां है मौजों का
आ मुझे भी गले लगा साहिल।

सूखी झीलों में दरिया रहते हैं
छेड़ न इनको न जगा साहिल।

कश्तियाँ कैसे लौट पायेंगी
रुख बदलती नहीं हवा साहिल।

कितने दरिया 'सजल' गए आए
तूं न बदला वहीँ रहा साहिल.

Tuesday, June 23, 2009

अनभै सांचा के अंक २ में प्रकाशित


चप्पा-चप्पा इस ज़मीं को दल रहीं थीं आंधियां।
कौन जाने किस दिशा से चल रही थीं आंधियां।

हमको तो ऐसा लगा सदियाँ हमारी खो गयीं
लोग कहते हैं की पल दो पल रहीं थीं आंधियां।

तुम ये समझे बस तुम्ही थे ग़र्दिश-ए-तूफ़ान में
हमको भी कुछ इस तरह ही दल रहीं थीं आंधियां।

बात इतनी थी मगर क्यूँ आ गया तूफ़ान सा
कौन जाने कब से दिल में पल रहीं थीं आंधियां।

अब के बारिश में सुना है वो शजर भी गिर गए
जिनके पत्तों के सहारे चल रहीं थीं आंधियां।

अक्स अपना देख कर वो डर गया घबरा गया
आईने हाथों में लेकर चल रहीं थीं आंधियां।

अब नहीं मिल पाएंगे उस रेत पर मेरे निशाँ
मैं चला था जब वहाँ से चल रहीं थीं आंधियां।

Friday, June 19, 2009

अनभै सांचा में प्रकाशित

छोटी बहर की ग़ज़ल

ये सबा अजनबी।
ये फजा अजनबी।

दिल से निकली है
पर है सदा अजनबी।

मुझ को देखा कहीं

क्या बता अजनबी।

ज़िन्दगी है नई

फ़लसफा अजनबी।

आइनें में मुझे

मैं लगा अजनबी।

इस शहर में हर इक

हादसा अजनबी।

घर में अपने रहा

पर रहा अजनबी।

चाँदनी रात थी

चाँद था अजनबी।

एक पहचानी धुन

हमनवा अजनबी।

मेरे गीतों का हर

तर्जुमा अजनबी।

नाज़-नखरा वही

पर अदा अजनबी।

दिल में मौजों का इक

सिलसिला अजनबी।

मीत दे कर गया

इक सज़ा अजनबी।

बोल जायूँ कहाँ

हर दिशा अजनबी।

इस 'सजल' को मिली

हर दुआ अजनबी।






धन्यवाद प्रवीण जी तथा केसरी जी। वीनस जी अनभै सांचा साहित्य और संस्कृति की एक त्रैमासिक पत्रिका है जिसमे रचनाएं गुणवत्ता के आधार पर छपी जाती हैं न कि जान-पहचान अथवा विचारधारा के आधार पर। संपादक द्वारका प्रसाद जी का निर्णय इसमे अन्तिम होता है यद्यपि वे उचित व्यक्ति से विचार विमर्श अवश्य कर लेते होंगे. ग़ज़ल का नियमित सेक्शन अनभै सांचा की पहचान बन चुका है। बड़े नामों के साथ साथ नए नामों की उत्कृष्ट रचनाओं को भी अनभै सांचा बे-हिचक छपता है। आप अपनी रचनाएँ bhejne या पत्रिका mangwaane के लिए likhen

द्वारका प्रसाद charumitra

१४८, kadambari, sector ९, rohini

delhi-८५

ईमेल : anbhaya.sancha@yahoo.co.in

Saturday, June 13, 2009

सीप और बूँदें

नीलाम्बरा में प्रकाशित

बूँदें

सीप के

मुख में गिरकर

अक्सर मोती बन जाती हैं

और सीपें

अक्सर

प्यासी रह जाती हैं।

मृग्कन्या

नीलाम्बरा में प्रकाशित एक लघु कविता

मृगकन्या
जंगल में अधिक सुरक्षित
महसूस करती है
क्योंकि
वहाँ भेड़िया,
भेड़िया ही नज़र आता है,
उसके आदमी के खाल में होने का
डर नहीं है ,
क्योंकि
जंगल,
जंगल है,
शहर नहीं है।

अनभै सांचा में प्रकाशित

वो परिंदे फ़िर से शायद लौट के आयें यहीं।

देर तक वो टहनियां इस आस में हिलती रहीं।

अब नहीं आती मेरे दिल की ज़मीं तक रोशनी

एक जंगल उग गया है जिस्म के अन्दर कहीं।

दलदलों में वो खड़ा था चाँद के सपने लिए

ख्वाब उसके क्या कहें, uska pataa miltaaa nahin.

भर लो तुम अपनी उडानें, dhoond lo apnaa जहाँ

तुम पुकारोगे जहाँ से पाओगे मुझको वहीँ।

हसरतें मेरी मेरे दिल में ही रहने दो 'सजल'

रोक पायेंगे कहाँ साहिल जो ये नदियाँ baheen .

अनभै सांचा में प्रकाशित

रह रह के लहू रिश्ता रहा आसमान से।

ये कैसा तीर चल गया मेरी कमान से।

रखने को अपने पाँव ज़मीं ढूंढता रहा

जब थक गया वो अर्श की ऊंची उड़ान से।

टूटा था एक पंख मगर उड़ रहा था वो

लड़ता रहा वो लड़ सका जब तक विधान से।

कितने जतन से हमने मिटाए थे फासले

फ़िर गार कितने बन गए उनके ब्यान से।

बादल से झांकती हुई किरणों ने ये कहा

अब तो 'सजल' हटाईये परदे मकान से।

Tuesday, June 9, 2009

अनभै सांचा में प्रकाशित

क्या तेरे दिल में है बता साहिल।

रेत के ज़र्रे न उड़ा साहिल।

तेरे आगोश में समंदर है

और अब चाहता है क्या साहिल।

जाती लहरों को अलविदा कह दे

आती लहरों में डूब जा साहिल।

मुझ में भी कारवां है मौजों का

आ मुझे भी गले लगा साहिल।

सूखी झीलों में दरिया रहते हैं

छेड़ न इनको न जगा साहिल।

कश्तियाँ कैसे लौट पायेंगी

रुख बदलती नहीं हवा साहिल।

कितने दरिया 'सजल' गए आए

तूं न बदला वहीँ रहा साहिल.

Sunday, June 7, 2009

साहित्य एवं संस्कृति की त्रैमासिक पत्रिका अनभै सांचा में प्रकाशित

कतरा कतरा वो रात ढलती रही।
ज़िन्दगी हाथ से फ़िसलती रही।

मैं खड़ा रह गया किनारे पर
वो अकेली लहर से लड़ती रही।

मेरे घर को न कर सकी रो़शन
आसमां से ज़िया उतरती रही।

मिल न पायी कभी खुशी हमको
दो क़दम दूर हमसे चलती रही।

कश्तियाँ धंस गयीं किनारों पर
एक कागज़ की नाव चलती रही।

सबने देखा कायनात -ऐ -सजल
बस यूँ ही टूटती बिखरती रही।



Saturday, June 6, 2009

अनभै सांचा के अंक २ में प्रकाशित

चप्पा-चप्पा इस ज़मीं को दल रहीं थीं आंधियां।
कौन जाने किस दिशा से चल रही थीं आंधियां।

हमको तो ऐसा लगा सदियाँ हमारी खो गयीं
लोग कहते हैं की पल दो पल रहीं थीं आंधियां।

तुम ये समझे बस तुम्ही थे ग़र्दिश-ए-तूफ़ान में
हमको भी कुछ इस तरह ही दल रहीं थीं आंधियां।

बात इतनी थी मगर क्यूँ आ गया तूफ़ान सा

कौन जाने कब से दिल में पल रहीं थीं आंधियां।

अब के बारिश में सुना है वो शजर भी गिर गए
जिनके पत्तों के सहारे चल रहीं थीं आंधियां।

अक्स अपना देख कर वो डर गया घबरा गया
आईने हाथों में लेकर चल रहीं थीं आंधियां।

अब नहीं मिल पाएंगे उस रेत पर मेरे निशान
मैं चला था जब वहाँ से चल रहीं थीं आंधियां।

Friday, June 5, 2009

अनभै सांचा में प्रकाशित

दर्द की दास्ताँ सुनाने में।
देर कर दी क़रीब आने में।

हादसा था पलक झपकने का
मुद्दतें लग गई भुलाने में।

उसका कुछ दर्द कम हुआ शायद
क्या गया मेरा मुस्कुराने में।

यूँ न हैरान हो की ज़िंदा हूँ
देर लगती है जान जाने में।

कश्तियों की तमाम उम्र गई
ज़ोर लहरों का आज़माने में।

एक तस्वीर के सहारे भला
कौन जीता है अब ज़माने में।

जाने क्यूँ सबने साजिशें देखीं
उसके मस्ती भरे तराने में।

अब 'सजल' ढूँढ के रहेगा सहर
इस सियाह रात के .फसाने में।

कलाम-ए-सजल

कलाम-ए-सजल में आपका स्वागत है। इस ब्लॉग में आपको मेरी ग़ज़लों तथा कविताओं से रू-ब- रू होने का मौका तो आपको मिलेगा ही, साथ ही ग़ज़ल, कविता तथा अन्य सम्बंधित विषयों पर चर्चा करने का भरपूर मौका भी मिलेगा। आशा है कि आप इन साहित्यिक चर्चाओं का आनंद उठाएंगे। शीघ्र ही मिलता हूँ अपनी कुछ चुनी हुई ग़ज़लों के साथ।